"प्रेम की उम्र के चार पढाव"
मनीषा कुलश्रेष्ठ
प्यार ढाई अक्षर का शब्द हैं लेकिन इसकी अनुभूति सबको भिन्न भिन्न होती हैं | सुबह की ओस का चुम्बन करती किशोर उम्र जब इस छुवन को महसूस करती हैं तो अलग भाव प्रस्फुटित होते हैं | कमसिन उम्र के सूरज का ताप जब चढ़ता जाता हैं प्रेम का पढाव और सोच का अहसास भी बदलता जाता हैं | प्रेम के इस पढाव पर उम्र ओस से तृप्त नही होती बल्कि घूँट भर प्रेम चाहिए होता हैं| अपने भीतर पर प्रेम को महसूस करती मन की तरंगे समुन्दर के ज्वर भाटा सी जिद्दी भावो के उतार चढ़ाव को महसूस करती हैं | फिर मन इस प्रेम समंदर को अंदर उतार कर डूब जाना चाहता हैं और तब अगले चरम पढाव को पा जाता हैं | इन्हीं प्रेम लहरों पर उतरते डूबते मन के कोने उस स्तिथि को प्राप्त हो जाते हैं जहाँ प्रेम एक अनुभूति बन जाता हैं जिसकी अभिव्यक्ति भी सम्भव नही होती हैं |
मनीषा कुलश्रेष्ठ आज साहित्य जगत का प्रतिष्ठित नाम हैं| मनीषा शब्दों और भावो की जादूगर हैं | जिस भी विषय का चुनाव लेखन के लिए करती हैं, खुद तो उसमें डूब कर लिखती ही हैं अपने पाठको को भी दुनिया की सुध बुध भुलाकर उसी दुनिया का हिस्सा बना देती हैं |
इस बरस मनीषा की कविताओ की एक किताब "प्रेम की उम्र के चार पढाव" शिवना प्रकाशन से आई हैं | प्रेम में गुलाबी होना आपने सुना ही होगा, यहाँ तो किताब भी गुलाबी हैं और उस पर अंकित मनीषा की छवि भी गुलाबी और कविताओ को पढ़ते पढ़ते कोई भी पाठक भी भावों की अनुभूति से सराबोर हो उठेगा
मनीषा ने इस पुस्तक को उस भाव को समर्पित किया जिसके साथ वो एक उम्र नही अनेक उम्र गुजरना चाहती हैं | प्रेम को आशान्वित करती हैं कि मैं न रहूँ तो भी फिर से तुम्हारे लिए जन्म लूंगी | पुस्तक की पहली ही कविता जो उनके किशोर मन से लिखी कविता हैं बताती हैं कि उनका मन कितना मासूम हैं| उनकी उम्र गोल्ड फिश की तरह मरीचिका से चकाचौंध होती हैं| .यह कच्ची उम्र की कविताएं हैं जो परिपक्वता से अपनी बात कहती हैं|
एन फ्रैंक डायरी पढ़ती लडकी खुद को उसी अवतार मे खोया हुआ पाती है और लिख देती है एक कविता| कभी अँधेरी रातो को ड्रैगन से बतियाती और कभी नदी से रूबरू संवाद करती कवियत्री अपने मन को जब तन्हाई में देखती है तो कह उठती है:-
कल हम
जुड़े थे
तो हमारे साथ जुड़ा था
एक पूरा मेला
आज हम अलग हुए है तो
दर्द का एक पूरा रेगिस्तान सुलगता हैं
कोई परिंदा भी पर नहीं मारता हैं
मन की जिद्दी लडकी कविता में चिहुंक उठती है कि हम नींद की नदी पार करके सपनों के जंगल में भाग जायेंगे \
लेकिन अपनी कच्ची उम्र की तरह डरती भी हैं … न जाने कौन सी अनहोनी बात होनी हैं जिसके लिए मेरा हृदय बुरी तरह धडक रहा हैं \
अपने घर के अकेले कोने में कच्ची उम्र की लडकी जब दीवारों की तरफ देखती हैं तो हर कोने हिस्से में एक कहानी बुन देती हैं | अपने कमरे से अलविदा कहने से पहले वो अपनी दीवानगी को भीतर समेट लेना भी चाहती हैं | हर कविता प्रेम की कच्ची सौंधी खुशबु लिए किसी अनजाने से बात करती नजर आती हैं | उस उम्र की कहानी ही ऐसी होती हैं कि कोई नहीं होता फिर भी ख्याल भरे रहते हैं किसी की अनजानी आहट से |
..मनीषा की कविताओं में वही आहट नजर आती हैं जो एक षोडशी की धडकनों में संगीत की तरह गुंजित होती हैं | किताबी कीड़ा सी वो लड़की कभी प्रेम को तिकोना होने से बचाना चाहती हैं तो कभी अमलतास के नीचे बैठ पीले सुनहरे सपने बुनती हैं | प्रेम का स्वाद न जानते हुए भी उसको चखने को आतुर वो लड़की पहले प्यार के तिलिस्म को जानना चाहती हैं और चुपके चोरी छिपे के स्कूटर राइड से ही आलाहादित हो उठती हैं
इस पहले पढाव की कविताओं से आज की उम्र लड़की शायद खुद जोड़ न सके| लेकिन परिपक्व उम्र को जब इन कविताओ से गुजरना होगा तब उसको अपना समय अवश्य याद आएगा जब प्रेम एक वर्जित फल होता था और चुपके चुपके उस फल को खाने की कोशिश भरी दोपहर में अमलतास गुलमोहर के तले की हवा सी महसूस होती हैं ...आज केएयर कंडीशन वाले भी इस अमलतास की हवा को भी महसूस कर सकेगे यह इन कविताओं की शक्ति हैं|
मनीषा को तस्वीरों में षोडशी से जब युवा उम्र की तरफ देखा तो कविताओं में भी उनका वो एक जिद्दी अक्स अब मुलायम सा मासूम सा बन गया | जिसके सामने एक खुला बुग्याल हैं जहाँ वो मन की उमंगों तरंगो के साथ लुकाछिपी खेलती हैं तो कहीं कहीं बुग्याल थार से नजर आने लगते हैं .गुलाबी सी लडकी तब चुपके से आंसूं बहाती हैं लेकिन जो आंसूं जो पलकों की झालर पर अटके ही रहते है उनको गालों पर लुड़का कर कमजोर नही बनती हैं | अपने स्वप्निल प्यार का चेहरा सपनो में देखती लड़की अपने मन के कच्चे आँगन में जब सपने संजोती| बोती हैं तो वो आंगन कभी कभी पथरीला भी हो जाता हैं | पहले बाहुपाश का अलौकिक भाव कच्चा आँगन में ऐसे उतरता हैं कि जैसे सामने ही घटित हो रहा हैं और खुल रहा हैं गुलाबी लडकी का मन | उस आलिंगन को कितने प्यारे शब्दों में बयाँ करती है वो लड़की .....
पकते हुए गेहूं के खेतों से\गुजर कर आई हूँ मैं\ कच्ची पक्की सी महक/ बस गयी हैं देह में \ रात जब समेटा था तुमने \ बिखरी सुनहरी रेत सा \
x x x
सिर्फ अपने मन की नहीं उस काल्पनिक राजकुमार की भी मन की बात कहती हैं ..
रात तुम उफनी थी उस मुहाने पर आ \ जहाँ प्रकृति मिलाती हैं तुम्हें मुझसे \मैं हत्प्रभत सा समेटता रहा तुम्हे \ नदी हो तुम
नदी है यह कविताओ वाली गुलाबी लड़की जो समय के साथ लगातार बह रही हैं| मंजिल नहीं मालूम लेकिन लगातार प्रवाहमयी, किनारों को बाहों में सामने को आतुर, प्रतीक्षारत सी स्त्री बन जाती हैं जो जानती हैं स्त्री यकीनो का क्या हैं \ पुरुष चाह कर भी कई बार\ उन यकीनो को बचा नही पता \ क्योंकि उसको खुद को \मर्द साबित करना होता हैं \ इस यकीन को साबुत बचाते बचाते \कभी कभी टूट जाते हैं दोनों के यकीं
शक\ अबोला\ गणित \पतंग \डाह \ अनेक ऐसे छोटी छोटी कविताओं से गुजरते महसूस होता हैं कि स्त्री का मन एक सुरंग हैं उसकी थाह पाना बहुत मुश्किल हैं| कितने भाव भरे होते हैं उसके भीतर और हर बार अपने भावो को अभिव्यक्ति देने के लिए अलग तरह की उपमाओं और बिम्बों का प्रयोग एक सिद्ध्स्त कलम ही कर सकती हैं|
दूसरे पढाव की एक प्रेम कविता माँ और पत्नी होने के बीच पढ़कर ह्र्ध्य ने एक आह भरी तो अगले ही पन्ने पर माँ कविता ने गागर में सागर सी बात कह दी
यूँ तो माँ का जीवन एक किताब थी \ पन्ना दर पन्ना \मैं उन पन्नो की क्रम संख्या सी \उनके साथ \ फिर क्यूँ उसे पलटने से पहले \ बहुत पहले \मन दर्द से पक जाता हैं \ उंगुलियां अशक्त …\
हर स्त्री का मन सुनहरी फ़र्न का जीवाश्म कविता से अनायास ही जुड़ाव महसूस करने लगेगा | इस पढाव की कविताओं में मनीषा के मन की स्त्री कहीं बैचेनी से भरी हैं तो कहीं दार्शनिकता का पुट लिए हुए हैं . परिक्प्वता को कदम बढाता उम्र का यह पढाव कहीं आतुर दिखता तो कहीं खुद को समेटता हुआ | इस उम्र में सभी के साथ यही भावोनुभूति रहती हैं |
हर स्त्री इन कविताओ के भाव से खुद को जोड़ सकेंगी | इन कविताओं से मनीषा का अलग रूप देखने को मिलता हैं कहाँ कठपुतली वाली मनीषा , कहाँ लापता पीली तितली वाली मनीषा तो कहा मल्लिका मनीषा | यहाँ कहीं जिद्दी भावुक सी मनीषा …. मनीषा की खासियत ही हैं कि जब वो खुद चरित्र में उतर जाती हैं तब उस चरित्र को जीती हैं ...मनीषा इस कविताओं में हर आम स्त्री सी दिखती हैं |कहीं उनका मनीषा दि मल्लिका होना परिलक्षित नही होता दिखता हैं|
समाज की सांकलों से एक स्त्री का बंधा मन उम्र के तीसरे पढाव तक आकर आत्मविश्वासी हो उठता हैं| अपने भावो को संयित रखना, अपने फैसलों पर गर्व करना उसको बखूबी आ जाता हैं| इस उम्र की स्त्री के लिए प्रेम का उजास एक अलग ही सुनहरा रंग लिए आता हैं| अब वो ओस का चुम्बन लेकर तृप्त नही होती प्रेम के समंदर में तरंगों के साथ गाती रोती स्त्री को देख अलग ही अनुभूति होती हैं|
बहुत कुछ …. छोड़ गयी थी वो \ अतरंग कविता से गुजरते हुए जब देह भाषा और सुर्खरू कविता पढ़ते हैं तो बिम्बों की जादुई दुनिया से परिचय होता हैं \ इतनी सुंदर भाषा से ज्यामिति कविता के माध्यम से रिश्तो को परिभाषित करती स्त्री छिन्नमस्ता बन जाती हैं
घाव कविता दर्द को परिभाषित करती हैं तो लम्बी कविता काली एक स्त्री के होने की यात्रा को ब्यान करती हैं | देवी काली कैसे एक लडकी को उसके भयो से विजयी बनती हैं |सुंदर भाषा और अलंकारों से सजी कविता मेरी प्रिय कविता बन गयी हैं \ प्रवास चाहे वेनिस का रहा या फ़्रंकफ़र्ट का या फ्लोरेंस का एक स्त्रीमन की कलम की खूबसूरत बयानी हैं |
कविताओ के विभिन्न भावो की बारिश में भीगती जब मैं अंतिम पढाव की कविताओ तक पहुंची तो मनीषा क भाषा कौशल का लोहा मान चुकी थी …. मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मैं किसी गो कार्ट पर सवार हूँ जिसमें मुझे अलग लेवल तक जाना हैं| चाहे तो किसी भी एक पढाव के बाद वापिस लौटा जा सकता हैं| लेकिन भावो की बरसात कभी बूँद बूँद बरसती हैं तो कभी मूसलाधार भिगोती हैं फिर रिम झिम झड़ी लग जाती और मन उदासी और सोचने की अवस्था में खुद ही विचरण करने लगता हैं … पीछे पलट कर देखने की भी एक उम्र होती हैं| यह तो सामने दिखते रास्तो का निरीक्षण करती मन की कश्ती अपने मन पर एक रंगीन छतरी थामे भावो के गहरे समंदर में उतरने को खुद को तैयार कर लेती हैं|
उम्र के इस पढाव की पहली कविता कलेंडर जीवन के शाश्वत सत्य को बताती हैं तो अतीत के जंगल बार बार पुकारती हैं | मुग्ध कर जाती कविता स्मृति वन बहुत प्रभावशाली बन उठी हैं \बैचेन स्त्री मन कभी फरीदा तो कभी किल्योपेटरा बन कर प्रेमातुर हो उठता हैंतो कभी आदिवासी सोंनचम्पा से उठती एक आदिम गंध मदमस्त करती हैं|
मेले जीवन का उत्सव हैं भगोरिया मेले में कविता को भीतर तक अपनी कोख में पोषित करती कविताओ को जब जन्म दिया तो जैसे मेला सामने जीवंत हो उठा |
कुछ ऐसी पंक्तियाँ भी कविताओ का हिस्सा हैं जो मुख़्तसर सी हो उठती है
तुम्हारी देह वह एकमात्र सभ्यता हैं जिसे मैंने जाना और जिया हैं क्या
चुप्पियाँ कविता वास्तव में मन के कोलाहल को शांत करने का प्रयास करती प्रतीत होती हैं चुप्पियों के साथ बहुत कुछ खत्म हो जाता हैं तो चुप्पियों के साथ बहुत कुछ शुरू भी होता हैं |
झूठ न बोल पाने पर कौशल हैं \ सच की किरचो सी पैर में बिंध जाती हैं चुप्पियाँ \उम्र जी ली अल्हड सच बोलते बोलते तुमने \ अब धार लो व्यवाहरिकता के \ नफे नुक्सान की चुप्पियाँ \
चाय के मग से बात करती कविता हो या कमल ताल पर विचरण करती कविता \ चुप्पे दुःख हो या आराध्य इनकी भाषा अपना ऐसा गहन प्रभाव छोडती हैं कि मन बिंधा रह जाता हैं |
कैलाश यात्रा की कविताएँ मन्त्र मुग्ध करती हैं
नदी, सागर, अमलतास ,सूर्य और पतंग पर लिखी कविताएं हैं तो साथ साथ इन कविताओं में कच्चा आंगन भी हैं, पहली स्कूटर राइड भी , नींद की नदी के पार भी हैं तो डाह भी \ अग्निपुष्प भी हैं और शतुरमुर्ग भी हैं, यहां चाय का दिन भी हैं और आदिवासी लडकियां भी हैं तो फुसफुसाती हुई चुप्पियाँ हैं और पुलकित रोमांचित करती मानसरोवर की यात्राएँ और इन सबके बीच प्रेम करता हुआ एक मन तपते ज्येष्ठ में प्रेम को दो रंग राग \ विराग भी है| सबसे बड़ी बात यह कि इन कविताओं में उम्र के अलग अलग मौसम का एक रंग भी है, उस रंगों की आभा से बने इन्दरधनुष से जो आलोकिक दृश्य बनता हैं वो विस्मित करता हैं
संग्रह की कविताओं में एक स्त्री मन के विभिन्न अनुभवों के साथ-साथ प्राकृतिक दुनिया के अलग-अलग रंगों के बिंब हैं।कहीं विद्रोह करने को आतुर और कहीं सच को संवारते बिंब कविता में धीरे-धीरे रिमझिम बरसात से बरसते हैं और फिर तेज बरस कर हुए एक काव्यात्मक अनुभूति से तृप्त करते हैं । कविताओं में निहित प्रश्न, संवाद,, आश्चर्य-विस्मय और भावो का सूक्ष्म वर्णन उन्हें बार-बार पढ़ने और सोचने पर मजबूर करती हैं। भाषा का सौन्दर्य ,प्रकृति का चित्रण , सामाजिक परिवेश , उम्र का कौतुहल आत्मसंवाद , प्रकृति से आत्मालाप सामाजिक परिवेश का चित्रण समन्वित हैं | संवेदनाओ से भरपूर यह कविताएं मनीषा के अलग ही रूप का बोध कराती हैं
अभी तक मनीषा के लिखे को पढ़ते आये पाठक इस संग्रह के बाद जान सकेंगे कि मनीषा इतना काव्यात्मक गध्य कैसे गढ़ लेती हैं | विषयों का गहनता से चुनाव और उस पर सूक्ष्मता से खोजकर अपनी कलम से शब्दचित्र सा उपस्तिथ करना हर किसी के बूते में नहीं |
मनीषा जी को कविताओं के लिए बधाई |इस पुस्तक में छोटी बड़ी कुल ८० कविताओं का समावेश हैं | आप निरी रूमानी कवितायें पढ़ना चाहते हैं तो यह किताब आपके लिए नही हैं लेकिन अगर आप प्रेम के अलग अलग स्वरूपों को पढना चाहते हैं तो यह पुस्तक आपको पसंद आएगी | अलग मन स्तिथि में और समय में लिखी यह कविताएं अलग अलग रंग की कवितायें हैं और इन कविताओं को मुक्त छंद विधा में लिखा गया हैं | सीवन प्रकाशन से आई इस किताब का आवरण पृष्ठ और आकार बहुत सुंदर और आकर्षित हैं | पुस्तक की कीमत २५० रूपये कुछ अधिक प्रतीत होती हैं | आप मनीषा के लेखन के मुरीद हैं इस किताब को अमेज़न से मंगवाया जा सकता हैं | मैं कोई समीक्षक नहीं हूँ बस किताब को पढ़कर मन में जो भाव उत्पन्न हुए मनीषा जी को भेज रही हूँ |
नीलिमा शर्मा
७७, टीचर्स कॉलोनी
गोबिंद गढ़
देहरादून
८५१०८०१३६५